अमरीकी डॉलर गया भाड़ में


एक बहुत पुरानी कहावत है जापानी बीबी, फ्रैंच खाना और अमरीकी डॉलर जिस किसी के पास हो, वह बड़े नसीब वाला होता है। कहा जाता था कि अमरीकी डॉलर समूची दुनिया पर राज करता है लेकिन अब शायद इसके बुरे दिन भी आ रहे हैं। अमरीकी अर्थव्‍यवस्‍था में छाई मंदी को दूर करने के लिए वहां की हर सरकार ने खूब प्रयास किए लेकिन सफलता नहीं मिली। अमरीकी डॉलर दिन पर दिन कमजोर होता जा रहा है और दूसरी मुद्राएं मजबूत। ऐसे कई देश जिनकी अर्थव्‍यवस्‍था अमरीकी डॉलर से जुड़ी थी, अब यूरो को अपना रहे हैं। अनेक देश अपने विदेशी मुद्रा भंडार में अमरीकी डॉलर जमा करने के बजाय यूरो या दूसरी मजबूत मुद्राओं को वरीयता दे रहे हैं। ऐसे में अमरीका का परेशान होना स्‍वाभाविक है। अमरीकी कंपनियों को नए बाजारों की तलाश हैं और यही वजह है कि अमरीका एक के बाद एक देश पर हमला कर अपनी कंपनियों को वहां की अर्थव्‍यवस्‍था को हड़पने में मदद कर रहा है। जिन देशों ने अमरीकी दादागिरी के आगे सिर झुका लिया वहां देखिएं सारे बड़े कारोबारों में अमरीकी कंपनियों का वर्चस्‍व बढ़ता जा रहा है और घरेलू कंपनियां बर्बाद हो रही हैं। इसी प्रसंग में एक छोटा सा देश ईरान भी जुड़ गया है। ईरान के सेंट्रल बैंक के गवर्नर इब्राहिम शीबान ने साफ कर दिया है कि वे तेल की कीमत अमरीकी डॉलर में नहीं लेने पर विचार कर रहे हैं। यानी अब ईरान में अमरीकी डॉलर गया भाड़ में। ईरान अब जो भी भुगतान लेगा वह दूसरी मुद्राओं में होगा। हालांकि, इस समय ईरान की जो तेल आय है उसमें अमरीकी डॉलर की भागीदारी 50 फीसदी है। वाह क्‍या हिम्‍मत दिखाई है ईरान ने। लेकिन अमरीकी डॉलर के कर्ज में दबे दूसरे देश यह बात सोच भी नहीं पा रहे हैं और ज्‍यादा से ज्‍यादा भुगतान लेने देने का काम डॉलर में ही करना चाहते हैं।

टिप्पणियाँ

बेनामी ने कहा…
acha pryas hain saral sabdo me USA ki poll kholne ka...........
अफ़लातून ने कहा…
डॊलर -रुपये की लूट

अंतर्राष्ट्रीय विनिमय में अमरीका जैसे देश एक और तरीके से भारत जैसे देशों को लूट रहे हैं । वह है डॊलर और रुपए का विनिमय दर । बीस साल पहले एक डॊलर आठ-दस रुपये का था , आज वह ४८ रुपये का हो गया है। लेकिन क्रयशक्ति समता ( Purchasing Power Parity ) के हिसाब से देखें , अर्थात वस्तुओं और सेवाओं को खरीदने की क्षमता से तुलना करें , तो एक डॊलर आज भी दस रुपये से ज्यादा का नहीं होना चाहिए । इस अत्यधिक गैरबराबर विनिमय दर का मतलब है कि हम अपने आयातों का पांच गुना ज्यादा भुगतान कर रहे हैं। यह जबरदस्त लूट और शोषण है ।

अब बात साफ हो जानी चाहिए । इस जबरदस्त लूट और शोषण को सुविधाजनक बनाने और बढ़ाने के लिए ही अमरीका व दुनिया के अन्य अमीर देश मुक्त व्यापार की हिमायत करते हैं और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को बढ़ाने की वकालत करते हैं । विश्व व्यापार संगठन भी इसीलिए बनाया गया है तथा मुक्त व्यापार के क्षेत्रीय समझौते भी इसीलिए किए जा रहे हैं । दरअसल वैश्वीकरण की यह व्यवस्था नव-औपनिवेशिक शोषण और साम्राज्यवादी लूट का ही नया रूप है,नया औजार है । जैसे विदेशी पूंजी से भारत के विकास की बात वास्तविकता से परे एक अन्धविश्वास है , वैसे ही मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय ढांचे में निर्यातों से देश के विकास को गति मिलेगी,यह भी एक और अन्धविश्वास है ।

इन्हीं आर्थिक अंधविश्वासों के चलते आज भारत की अर्थव्यवस्था एक गहरे संकट में फंस गयी है । भले ही ऊपर बैठे शासक और अर्थशास्त्री ८ प्रतिशत विकास दर की खुशियाँ मनाते रहें , लेकिन देश की विशाल आबादी जबरदस्त बेरोजगारी,कंगाली,कुपोषण और अभावों से जूझ रही है । किसान , बुनकर , कारीगर और छोटे व्यापारी हजारों की संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं । पिछले पन्द्रह वर्षों में देश के पांच लाख छोटे-बड़े उद्योग बंद हो चुके हैं । जिस तरह का औद्योगिक विनाश ( de-industrialisation) डेढ़ सौ वर्ष पहले अंग्रेजों के राज में भारत में हुआ था , उसी तरह का औद्योगिक विनाश बड़े पैमाने पर एक बार फिर आजाद भारत में हो रहा है । तब खेती पर निर्भर आबादी बढ़ गयी थी , अब तथाकथित ‘ सेवाओं’ का हिस्सा बढ़ रहा है । लेकिन खेती , पशुपालन , उद्योग , खदानें , आदि में ही वास्तविक उत्पादन एवं आय सृजन होता है । एक सीमा के बाद सेवा क्षेत्र की वृद्धि भी इन पर निर्भर रहती है ।यदि खेती-उद्योग का विनाश होता है तो मात्र ’ सेवाओं ‘ के दम पर कोई भी अर्थव्यवस्था नहीं चल पाएगी । पूरा देश एक बार फिर बरबादी ,कंगाली और गुलामी की राह पर है ।

http://samatavadi.wordpress.com/2007/01/10/fdi-corporatisation-globalisation-bsnl/

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