दानवीर कर्ण और वारेन बफेट एंड बिल गेटस

दो अमरीकी महाधनाढ़य वारेन बफेट और बिल गेटस भारतीयों को दान की महिमा एवं दान करने के लिए प्रेरित करने पधारे। असल में तो सारा खेल इस दान महिमा के पीछे उनके बिजनैस का ही रहता है। वारेन बफेट को सुनने के लिए साफ कहा गया था कि पहले एक बीमा पॉलिसी खरीदो तो ही उनके कार्यक्रम में आ सकते हैं। दूसरा, बिल गेटस को आम आदमी जानता ही है कि दुनिया भर में जो कंप्‍यूटर चल रहे हैं वे अब उन्‍हें घर बैठे बिठाए खूब कमाई दे रहे हैं। कल की कोई चिंता नहीं है।

वारेन बफेट भारतीयों को दान के लिए प्रेरित करते हुए भारत सरकार को भी इस बात के लिए प्रेरित कर रहे हैं कि बीमा क्षेत्र में सीधे विदेशी धन की सीमा 26 फीसदी को खत्‍म कर सौ फीसदी कर दी जाए ताकि उनकी दुकान यहां अच्‍छी तरह जम सके। बिल गेटस के बारे में आम आदमी जानता ही है कि जो कंप्‍यूटर चल रहे हैं वे दिन रात उनकी तिजोरियां भर रहे हैं। भारतीय उद्योगपति इस समय सम्‍पत्ति सर्जन कर रहे हैं जबकि बफेट एवं गेटस यह काम कर चुके हैं। हालांकि, भारतीयों को दान की महिमा के बारे में बताने की जरुरत नहीं है। भारतीय उद्योगपति कारोबार के अलावा दान पुण्‍य का कार्य ढोल नगाड़ा बजाए बगैर कर रहे हैं।

दानवीर कर्ण से लेकर म‍हर्षि दधीचि इस देश में जन्‍मे हैं। इस देश में अनेक राजा-महाराजा, रईस पैदा हुए हैं जिन्‍होंने परोपकार के लिए अपना सब कुछ लूटा दिया। आज भी देश में अनेक ऐसे लोग हैं जो यह कार्य कर रहे हैं लेकिन वे इसका ढोल नहीं पीट रहे। दान के बारे में कहा गया है कि दान वही उत्तम होता है जो सही पात्र को दिया जाए और दाएं हाथ से दान दिया जाए तो बाएं हाथ तक को पता न चले। बाएं हाथ से दान दिया जाएं तो दाएं हाथ तक को पता न चले। लेकिन अंतरराष्‍ट्रीय धनाढ़य भारतीय संस्‍कृति और आदर्श नहीं जानते। वे यह समझते हैं कि एक फाउंडेशन बनाओं और दान का ढोल इतना जोर से पीटो कि लगे तीनों लोक में इनसे बड़ा दानी पैदा नहीं हुआ। अब जानिए आप दानवीर कर्ण की कथा:

महाभारत का युद्ध चल रहा था। सूर्यास्त के बाद सभी अपने-अपने शिविरों में थे। उस दिन अर्जुन ने कर्ण को पराजित कर दिया था। इसलिए वह अहंकार में चूर थे। वह अपनी वीरता की डींगें हांकते हुए कर्ण का तिरस्कार करने लगे। यह देखकर श्रीकृष्ण बोले-“पार्थ! कर्ण सूर्यपुत्र है। उसके कवच और कुंडल दान में प्राप्त करने के बाद ही तुम उस पर विजय पा सके हो अन्यथा उसे पराजित करना किसी के वश में नहीं था। वीर होने के साथ ही वह दानवीर भी हैं। उसके समान दानवीर आज तक नहीं हुआ।”

कर्ण की दानवीरता की बात सुनकर अर्जुन तिलमिला उठे और तर्क देकर उसकी उपेक्षा करने लगा। श्रीकृष्ण अर्जुन की मनोदशा समझ गए थे। वे शांत स्वर में बोले-“पार्थ! कर्ण रणक्षेत्र में घायल पड़ा है। तुम चाहो तो उसकी दानवीरता की परीक्षा ले सकते हो।” अर्जुन ने श्रीकृष्ण की बात मान ली। दोनों ब्राह्मण के रूप में उसके पास पहुंचे। घायल होने के बाद भी कर्ण ने ब्राह्मणों को प्रणाम किया और वहां आने का उद्देश्य पूछा। श्रीकृष्ण बोले-“राजन! आपकी जय हो। हम यहां भिक्षा लेने आए हैं। कृपया हमारी इच्छा पूर्ण करें।”

कर्ण थोड़ा लज्जित होकर बोला-“ब्राह्मण देव! मैं रणक्षेत्र में घायल पड़ा हूं। मेरे सभी सैनिक मारे जा चुके हैं। मृत्यु मेरी प्रतीक्षा कर रही है। इस अवस्था में भला मैं आपको क्या दे सकता हूं?” “राजन! इसका अर्थ यह हुआ कि हम खाली हाथ ही लौट जाएं? ठीक है राजन! यदि आप यही चाहते हैं तो हम लौट जाते हैं। किंतु इससे आपकी कीर्ति धूमिल हो जाएगी। संसार आपको धर्मविहीन राजा के रूप में याद रखेगा।” यह कहते हुए वे लौटने लगे। तभी कर्ण बोला-“ठहरिए ब्राह्मणदेव! मुझे यश-कीर्ति की इच्छा नहीं है, लेकिन मैं अपने धर्म से विमुख होकर मरना नहीं चाहता। इसलिए मैं आपकी इच्छा अवश्य पूर्ण करूंगा।

कर्ण के दो दांत सोने के थे। उन्होंने निकट पड़े पत्थर से उन्हें तोड़ा और बोले-“ब्राह्मण देव! मैंने सर्वदा स्वर्ण(सोने) का ही दान किया है। इसलिए आप इन स्वर्णयुक्त दांतों को स्वीकार करें।” श्रीकृष्ण दान अस्वीकार करते हुए बोले-“राजन! इन दांतों पर रक्त लगा है और आपने इन्हें मुख से निकाला है। इसलिए यह स्वर्ण जूठा है। हम जूठा स्वर्ण स्वीकार नहीं करेंगे।” तब कर्ण घिसटते हुए अपने धनुष तक गए और उस पर बाण चढ़ाकर गंगा का स्मरण किया। तत्पश्चात बाण भूमि पर मारा। भूमि पर बाण लगते ही वहां से गंगा की तेज जल धारा बह निकली। कर्ण ने उसमें दांतों को धोया और उन्हें देते हुए कहा-“ब्राह्मणों! अब यह स्वर्ण शुद्ध है। कृपया इसे ग्रहण करें।

तभी कर्ण पर पुष्पों की वर्षा होने लगी। भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट हो गए। विस्मित कर्ण भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए बोला-“भगवन! आपके दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया। मेरे सभी पाप नष्ट हो गए प्रभु! आप भक्तों का कल्याण करने वाले हैं। मुझ पर भी कृपा करें।” तब श्रीकृष्ण उसे आशीर्वाद देते हुए बोले-“कर्ण! जब तक यह सूर्य, चन्द्र, तारे और पृथ्वी रहेंगे, तुम्हारी दानवीरता का गुणगान तीनों लोकों में किया जाएगा। संसार में तुम्हारे समान महान दानवीर न तो हुआ है और न कभी होगा। तुम्हारी यह बाण गंगा युगों-युगों तक तुम्हारे गुणगान करती रहेगी। अब तुम मोक्ष प्राप्त करोगे।” कर्ण की दानवीरता और धर्मपरायणता देखकर अर्जुन भी उसके समक्ष नतमस्तक हो गया। क्‍या वारेन बफेट और बिल गेटस दानवीर कर्ण से तो बड़े नहीं ही है क्‍योंकि वे जहां दान देते हैं वहां अपने कारोबारी लाभों को जरुर देखते हैं, जबकि कर्ण ने कोई लालसा नहीं रखी थी। यदि वह चाहता तो कृष्‍ण से जीवन मांग सकता था। आम भारतीय घरानों में बुजूर्ग दान और सहायता की जो शिक्षा देते हैं वह अमरीकी धनाढ़यों की शिक्षा से बेहतर होती है।

टिप्पणियाँ

रवि रतलामी ने कहा…
कर्ण की कहानी तो फिर भी पौराणिक आख्यान है, पर आपका यह कहना -

असल में तो सारा खेल इस दान महिमा के पीछे उनके बिजनैस का ही रहता है। वारेन बफेट को सुनने के लिए साफ कहा गया था कि पहले एक बीमा पॉलिसी खरीदो तो ही उनके कार्यक्रम में आ सकते हैं।

आँखें खोलने वाला है. दुनिया फोकट में ही उनकी दानवीरता के चर्चे करती रहती है.
रचना ने कहा…
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