अन्तरात्मा खडी़ बजार में...

मोहन वर्मा

horse car पश्चिम बंगाल की जनता के नाम अपने खुले पत्र में टाटा ने बहुत बुनियादी सवाल उठाया है, कि कानून का शासन, आधुनिक ढांचा और औद्योगिक विकास दर वाले खुशहाल राज्य बनाम टकराव, आंदोलन, हिंसा और अराजकता के विध्वंसकारी राजनीतिक माहौल से बरबाद होते राज्य में से पश्चिम बंगाल की जनता किस प्रकार के राज्य को चुनना चाहेगी?

इस मूलभूत सवाल के परिप्रेक्ष्य में यह जानना दिलचस्प है, कि एक ही शब्द के मायने, एक ही बात की परिभाषाएं, किस तरह व्यक्तियों और समुदायों के लिए अलग-अलग विरोधाभासी रूख अख्तियार करती हैं। कानून का शासन यह है कि राज्य प्राकृतिक संसाधनों को उन ब़डे देशी-विदेशी उद्योगपतियों के हवाले कर दे, जिनकी औद्योगिक परियोजनाओं की सफलताएं, भारत के भावी विकसित स्वरूप का निर्माण करने वाली हैं। कानून का शासन वे लोग मानें, जिनकी जिंदगियों में शेयरों का, कंपनियों का कोई सीधा दखल नहीं, बल्कि जिनकी जिंदगी की शर्तें जल-जंगल और जमीन से जुडी़ हैं। पश्चिम बंगाल सरकार कानून के शासन के परीक्षण के इस मामले में विफल रही और अंतत: टाटा के आगे बिछ-बिछ जाने को तैयार विभिन्न मुख्यमंत्रियों में से टाटा ने एक मजबूत हिंदू को चुन लिया।

आधुनिक ढांचे की बात करते ही कल्पना में मल्टीप्लेक्सों-मॉलों-हाइवे-फ्लाईओवरों-ऊंची चमकीली बिल्डिंगों और सजे-धजे खर्चीले लोगों से पटे पडे़ शहरों की दौडती-भागती तस्‍वीर आपके दिलोदिमाग में उभरती है कि नहीं? जहां बच्चों के लिए ब्रांडेड नैपी से लेकर जवानों के लिए विश्व स्तर के सारे साजो-सामान, सुख-सुविधाएं और बुजुर्गों के लिए ओल्ड-होम्स मौजूद हों। अब रही औद्योगिक विकास दर, तो इस दर के साथ भारत को विश्व की आर्थिक महाशक्ति की पांत में ला खडा़ करने को आतुर लोगों के लिए पर्यावरणवादी और जल-जंगल-जमीन से जुडे लोगों के सुर में सुर मिलाने वाले अराजकतावादी और विध्वंसकारी लोग, बुरे सपने की तरह हैं, जो उडीसा से बंगाल तक और छत्तीसगढ़ से झारखंड तक पोस्को-टाटा-वेदान्ता-सलेमग्रुप आदि-आदि-इत्यादि कंपनियों के खिलाफ इंटरनेट, पम्फलेट, जुलूस, धरना-प्रदर्शन, लोगों को उकसाने, जनहित याचिकाओं आदि-आदि-इत्यादि तरीकों से मुश्किलों पर मुश्किलें खडी करते जा रहे हैं।

पूंजी के सर्वसमावेशी चरित्र पर अंगुली उठाने में अपने खिलाफ विकास विरोधी, वामवादी, साम्यवादी, राजनीतिप्रेरित आदि-आदि किस्म के फतवे जारी हो जाने के चांस ज्यादा हैं, लेकिन कौन साबित कर सकता है कि खुशहाली के मानक सबके लिए एक जैसे हो सकते हैं ? हिंदुस्‍तान को आजादी मिलने के बाद आधी सदी तक कितने ऐसे लोग थे, जो देश की प्रगति को सेंसेक्‍स के साथ जोड़कर देखते थे? सेंसेक्‍स ने जिन लोगों को धनकुबेर बनाया उन्होंने चमचमाती कारों, लग्जरी विमान यात्राओं, शानदार एयरकंडीशन्ड बिल्डिंगों की दुनिया में खोकर राहत की सांस ली, कि चलो देर से ही सही, भारत विकसित होना शुरू तो हुआ।

अराजकता, विध्वंस, टकराव और हिंसा की बात करने से पहले एक पहेली बूझिए कि विश्वव्यापी आर्थिक मंदी, बडी वित्तीय संस्थाओं के धराशायी होने, बेलआउट के घंटी हिलाऊ सरकारी प्रयासों के बावजूद दुनिया भर के शेयर बाजारों के ताश के महलों की तरह ढहने, निवेशकों के माथा पीटने का यह दौर न आया होता, और दुनिया की प्रगति के साथ अपना दुलारा सेंसेक्‍स भी पचीस-तीस हजारी पालने में झूल रहा होता, तो क्या भारत से गरीबी-शोषण-अत्याचार-बालश्रम-स्त्री शोषण-कन्या भ्रूण हत्या-जातीय हिंसा-कुपोषण-बेरोजगारी-वेश्यावृत्ति-आतंकवाद-अंधविश्वास आदि-आदि समाप्त हो गए होते ? सैकडों करोड़ रूपए में चुनाव-प्रचार के ठेके नामी विज्ञापन कंपनियों को देने वाली राजनीतिक पार्टियाँ जब सत्ता में आती हैं तो पूंजीवादी ताकतों के बे-धौंस चरने-खाने को देश परोस देना उनकी एक मजबूरी, और किसान-मजदूर के हित की माला जपना और लोक-लुभावन योजनाएं बनाना, तथाकथित जनकल्याणकारी फैसलों की जुगाली करना दूसरी मजबूरी होती है।

आप निवेशक हैं, तो इन कंपनियों का मुनाफा दिन-दूना रात-चौगुना बढ़ने की कामना करेंगे, ताकि आपको भी फायदा हो सके, जिसे अन्तत: कंपनियों द्वारा आक्रामक तरीके से समाज में विकसित की गई उपभोगवादी मानसिकता के चलते कंपनियों की जेब में ही फिर जाना है। कोढ और खाज से ग्रस्त वेश्या अपना चेहरा मेकअप से पोत-पात कर ग्राहक रिझाने को बाजार में बैठी हो, लेकिन खुजली लगी हो, तो खुजाना पडे़गा ही। और तब मवाद हाथ के जरिए चेहरे पर भी लगकर असलियत बयान करेगा। यह खुजली-नासूर की अराजकता है, जो 'स्थिति शांतिपूर्ण लेकिन नियंत्रण में' टाइप प्रयासों से दबाए नहीं दबेगी, प्रगति सुनिश्चित करने के दावों भरे बयान चाहे जितने भी आते रहें। समाज में आर्थिक स्तर पर बने कई वर्गों के बीच विकास को जिस तरह उपधाराओं में बंट जाने दिया गया है, उसके चलते जिसके हिस्से में गंदा नाला आया है, उसके आक्रोश का सामना मिनरल वॉटर वाले, गंगाजल वाले को करना ही पडेगा। एक मुख्यधारा बनाकर सभी को इसमें शामिल करने की बात दूर की कौडी है, जिसके बारे में सोचने तक की फुरसत किसी को नहीं। तो, फिलहाल मंदी का स्यापा करते लैपटॉप धारियों को एक खिडकी से और दूसरी खिडकी से तोडफोड-अराजकता-हिंसा-आगजनी-हत्या-फसाद मचाती भीड को देख-देख कर ठंडी आहें भरते रहिए।

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